Wednesday 28 November 2012

कफ़न की कसक



रमेश यादव / e-mail: dryindia@gmail.com/

आज 27 नवम्बर, 2012 को माँ से बात हुई,उनकी एक बात से मैं शून्य में चला गया...फिर मेरी स्मृति की रील अतीत में घूमने लगी ...    


मई, 2012
मैं मई, 2012 में गाँव गया था.शाम का समय था.पाही पर बैठे थे.अचानक आवाज़ आयी.’अरे हमार लाल,कब आईला’.हम उठे.उनका पैर छुए.वे छाती से लगायीं और फफ़क-फफ़क कर लगीं रोने.घर के सब बच्चे घेरा बनाकर हम दोनों को देखने लगे.
कुछ देर बाद अपने हाथों से हमें लगीं सहलाने.उनके रूखे हाथों की छुअन ताजिंदगी याद रहेगी.जो ममता उनसे मिली,माँ से नहीं...जिस तरह वे मुझे पकड़ कर रोतीं,माँ कभी नहीं रोयीं.
मैं उन्हें पकड़कर चारपाई पर बैठाने लगा,वे जमीन पर बैठने लगीं.बोलीं ‘रिवाज़ मत तोड़ ललवा...’ हम उन्हें समझाए और चारपाई पर ही बैठाए.
मेरे सर पर हाथ रखकर बोलीं ‘देख बहिन (दादी की तरफ देखकर) हमारे हाथ का है...’ फिर बोलीं ‘खूब बढ़ा लाल,खूब फला-फूला’.
हमने पूछा.हमारे आने का कैसे पता चला.बोलीं ‘दुलहिया (माँ के बारे में) मिलल रहल ह..पूछली ह हमार ललवा कईसे हऊअन त बतौलिन हं,अयाल हऊअन मावा !’ फिर लगीं रोने...
जब वे जाने लगीं,अपने चचेरा भाई को खेत से सब्जी लाने के लिए इशारा किया,उन्हें रोड तक छोड़ने गया.उनकी हथेली को खोला और कुछ रखकर मुठी बांध दिया,उनकी तबियत खराब मालूम पड़ रही थी.बहुत कमजोर हो गयीं थीं...  
‘जुग-जुग ज़िया हमार लाल,खूब फला-फूला’,कहते हुए गाँव की तरफ लाठी टेगते चल दीं...और हम उन्हें जाते हुए देर तक देखते रहे...             
जानना चाहेंगे वे कौन थीं !
बाला दादी.हमारी दादी.अपनी दादी से सौ गुना अच्छी और ममतामयी.भावना जैसे उनमें समादर की लहर सी उठती...   
गाँव के रिश्ते में ‘बाला’ हमारी दादी लगती थीं.गाँव से दक्षिण टोला यानी चमराने-चमटोल में उनका घर था.वे अनपढ़,दलित थीं,लेकिन पढ़े-लिखे,उनके आगे पानी भरते थे.
वे हमें अकसर माँ से पूछा करती थीं.जब भी माँ से बात होती,माँ बोलतीं 'बाला मावा  पूछ रहीं थीं बेटा...’ पूछती क्यों नहीं.उनके हाथ मेरी पैदाइश जो हुई थी.इस गर्व को वे बांटते फिरतीं.
यह बात 1973-74 की है.यहीं हमारी पैदायशी साल है.उस समय गाँव में महिला डाक्टर नहीं होती थीं.बाला दादी,दाई के तौर पर बुलायी गयीं.
वहीँ हमारी देख-रेख करतीं.माँ की भी...फिर क्या था,जीवन भर जुड़ी रहीं.त्यौहार पर घर आना नहीं भूलतीं.पूरे अधिकार के साथ ..ले जातीं..
जब भी वे कभी मिलतीं.अपने हाथों से,हमारे पूरे शारीर का एक्सरे करतीं.      
मार्च, 2010
एक दिन माँ को फोन किया.बातचीत के दौरान ही माँ ने कहा.’बाला मावा पूछ रही थीं’,”कह रहीं थीं बचवा के बियाहे (शादी) में लुग्गा (साड़ी) पहिरब, दुलहिया...”
 हमने माँ से कहा.उनसे कहियेगा इस बार आऊंगा तो,उनसे जरुर मिलूँगा.एकाध बार हुआ,जब उनसे मुलाकात नहीं हो सकी.
माँ बोलीं ‘अब उनकी तबियत ठीक नहीं रहती,बचवा..’ हमने माँ से कहा,दादी को एक जोड़ी धोती,कुछ रुपये और अनाज दे-दें.बाकी हम आएंगे तो उनसे मिलेंगे...
एक माह बाद फिर माँ से बात हुई.हालचाल के बाद माँ ने उनके बारे में जानकारी दी.
जिस दिन माँ से हमारी बात हुई थी,उसके कुछ घंटे में बाला दादी घर पहुँच गयीं.माँ ने उन्हें हमारे बारे में बताया.जैसा हमने कहा था,माँ ने वैसा ही किया.
जैसा उनका स्वाभाव था,आशीर्वाद देते हुए उठीं और रास्ते भर ‘हमार लालवा जुड़े रहें,खूब फलें-फूलें...’
कहते हुए घर जा रहीं थीं.चमटोली की तरफ से चाची आ रही हीं थी,पूछीं ‘केकरे घरे से आवत हउ दादी,’ बोलीं “गुलबिया (माँ का नाम गुलाबी है) के घरे से...हमार लाल हमके जुड़वा देहलन...”
                    
अक्टूबर, 2010  
वैसे तो जब भी विश्वविद्यालय में छुट्टी होती,हम गाँव जाते,बाला दादी से जरुर मिलते.उनके घर जाकर.बहुत बार वे खुद ही घर आ जातीं.पूछते-पूछते.तब हम बेरोजगार थे.उनके लिए कुछ करने की स्थिति में नहीं थे.
बावजूद इसके उन्होंने,हमसे कभी कोई उम्मीद नहीं रखी,जब भी मिलीं सावन-भादों की तरह आशीर्वाद का वर्षा कीं.हमें देख जिस अपार खुशी का वे इज़हार करतीं.आजतक किसी ने नहीं की.माता-पिता ने भी नहीं की. 
अक्टूबर, 2010 में उत्तर प्रदेश ग्राम पंचायत का चुनाव था.चाचा चुनाव लड़ रहे थे.हमें भी लोग बुलाए थे.
माँ से ‘बाला दादी’ के बारे में पूछा,बोलीं ‘मावा बीमार हैं...’ हम उनके घर गये. करीब चार बजे का वक्त रहा होगा.घर से थोड़ी दूरी पर बनी मड़ई में बैठी खांस रहीं थीं.
हमने आवाज़ दी.बोलीं ‘के हव बचवा...’ हम उनके पैर छुए..उन्हें समझते देर नहीं लगी...हर्षित मन से बोलीं ‘अरे हमार लाल...कब आईला...’ उनके बगल में एक टूटी चारपाई पड़ी थी.सिरहाने फटा हुआ लेवा पड़ा था.दुबली इतनी की एक-एक हड्डियां गिनी जा सके...
हम कुछ पूछते,उससे पहले,उन्होंने बीमारी, दो बेटों के असहयोग,छोटे बेटे की सेवा के बारे में और जीवन के दर्द को बयां कीं.
डाक्टर ने उन्हें जो दवा दी थी,सब दिखायीं.पर्ची दीं.बोलीं ‘एक खांसी क सिरप अबही ना अयाल हव..छोटका के पास पैसा ना रहल आज काम पर गयल हव...’
हम उनके लिए क्या कर सकते थे,जो किये भी,उससे खुद भी संतुष्ट हुए...हम तो ताजिंदगी उन्हें,वैसे ही देखना चाहते थे,जैसी थीं... उनकी हथेली खोला,फिर मुट्ठी बांध दिया..बोला का फिर आऊंगा...     
दूसरे दिन फिर मिलने गये.’बाला दादी’ धूप में बैठी थीं.बड़ा-मझला बेटे मिलकर पक्का घर बना रहे थे.बोलीं ‘ज़माना बदल गयल लालवा,सब आपन-आपन देखत हव,माई-बाऊ....उनकी पीड़ा सुनी आँखों और झूलती चमड़ी बयां कर रही थीं...
27 नवम्बर,2012
आज करीब तीन बजे रेनू (छोटी बहन) ने फोन किया.बात की.जब उसे अहसास हुआ कि इस बार सर्दी में नहीं जाऊंगा तो अपनी ख्वाहिशों की लम्बी फेहरिश्त ‘वर्चुअल मोड’ में थमा दी.
फोन माँ को थमा दिया.माँ खूब बतियाईं...हमने पूछा गाँव के लोगों का क्या हालचाल है.बोलीं ‘सब कोई ठीक हव बचवा,’बाला मावा मर गईलीं...’ कल दसवां रहल...’ इतना सुनना था कि मैं शून्य में चला गया.
हमने माँ से पूछा इतने दिन बाद क्यों बता रहीं हैं,बोलीं ‘हमहनों के कहाँ पता चलल,उ त रेनू देखलस सड़क पर लावा गिरल रहल.फलाने बो से पूछलस त बतवनी कि चमराने क बाला मर गईलीं...बाजा भी ना बाजल कि पता चलत... अब चमटोली में उनके जईसन केहू ना हव...’
हम कुछ बोलते उसके पहले ही माँ बोलीं ‘कफ्फन भी न दे पवली मावा के...’ माँ को हम बोल रखे थे,जब भी उन्हें कोई दिक्कत हो तुरंत मदद कीजियेगा...
माँ बोलीं “बचवा,मावा कहत रहलीं जवन हमार जनमल ना कईलन,उ हमार लाल कईलन..हमार भईया हमके तार देहलन...” माँ से बोला अब रखता हूँ...
हमने ‘बाला दादी’ के लिए क्या किया,कुछ भी नहीं...क्या कर सकते थे,उनके लिए...ज़िंदा रख
सकते,तभी कुछ कर सकत थे...जो हमारे बस का नहीं था...जो बस में था,वह भी तो नहीं कर सके ...      
अंतिम वक्त कफ़न न देने की कसक ताजिंदगी रहेगी...’बाला दादी’ को गर्व था कि हमारा जन्म,उनके हाथ हुआ और मुझे उन पर फक्र था कि वे मेरे बचपन की डाक्टर थीं...
स्मृतियां जो नहीं जाएँगी....  
बचपन के दिन थे.नानी गाँव से गर्मी के सीजन में आया था.गाँव के पश्चिम में महुआ का पेड़ था.उसी के नीचे ‘बाला दादी’ ‘नरिया-थपुआ’ (गाँव में इसी से कच्चा मकान बजाये जाते रहे हैं) पाथ रहीं थीं.
ठीक-ठीक तो नहीं पता,उनकी उम्र 40-45 की रही होगी...तब हमारी उम्र 5-6 साल की रही होगी.माँ से बहुत सारी बातें कर रहीं थीं... वे कई पीढ़ी की खबर रखतीं.जब भी रोपनी लगती,’बाला दादी’ जरुर बुलायीं जातीं...
अब तो न महुआ का पेड़. रहा और न ‘बाला दादी’ रहीं.महुआ के पेड़ और बाला दादी में एक समानता थी... अब जब गाँव जाऊंगा तो उनकी स्मृतियां परछाई की तरह आगा-पीछा करेंगी.
कभी खेत में,कभी खलिहान में.कभी डहर (रास्ते) चलते.कभी नदी के किनारे.कभी मड़ई में.कभी उनके खुरदुरे हाथों से कपार और चेहरा सहलाने का अहसास...गाँव तो होगा,लेकिन ‘बाला दादी’ नहीं होंगीं...
काश ! ‘बाला दादी’ तक हमारी यह भावना पहुँच पाती.हमारे जीवन की पहली और अंतिम ‘बाला दादी’,हमारे बीच नहीं रहीं.हमारी स्मृति ही,उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है...
           

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