Wednesday 26 December 2012




पुलिस ने लिखी कहानी,मीडिया में हुआ प्रसारित


रमेश यादव /dryindia@gmail.com

26 दिसंबर,2012.नई दिल्ली.

कभी-कभी इसका राग़ विज्ञापन न मिलने तक क्रान्ति और जैसे ही विज्ञापन का जुगाड़ हो जाये फिर मरघट सरीखा शांति.मौजूदा मीडिया के इस लक्षण को आम जनता जान परख रही है.



करीब दस दिनों में राष्ट्रीय मीडिया का चेहरा,दस किस्म का देखने को मिला है.कभी यह दिल्ली पुलिस की लिखी कहानी के आगे-पीछे घूमता है.कभी बलात्कारियों को सजा दिलाने वाले समूह के आगे खड़ा हो जाता है.कभी सरकार के हाँ में हाँ मिलाता है तो कभी खुद के द्वारा खिंची गयी,लकीर को मिटाता और फिर उसी जगह नयी लकीर खींचता नज़र आ रहा है.

इसका मूल संकट है कि यह खुद के भरोसे जमीनी स्तर पर खोजी निगाह नहीं रखता.इसकी विश्लेष्णात्मक क्षमता पैनी नहीं है.पुलिस और सरकार के बयानबाजी पर इसकी दुकान चल रही है.इसी वजह से इसके ऊपर कई किस्म के गंभीर आरोप लग रहे हैं.

कभी-कभी इसका राग़ विज्ञापन न मिलने तक क्रान्ति और जैसे ही विज्ञापन का जुगाड़ हो जाये फिर मरघट सरीखा शांति.मौजूदा मीडिया के इस लक्षण को आम 
जनता जान परख रही है.             

इधर के दो दशकों के दरम्यां एक खास वर्ग पैदा हुआ है,जिसका जल,जंगल, जमीन,जीवन संघर्ष,इज्जत,आज़ादी और न्याय से जुड़े जन आंदोलनों से बहुत गहरा और संवेदनशील सरोकार नहीं दिखता.

संघर्ष की भट्ठी से तपकर निकले हुए जमात और हाशिये के जमात से भी इसका बहुत जीवंत रिश्ता नहीं रहा है.ये कुछ ख़ास वजहें हैं,जो इन्हें मौलिक रूप से बहुसंख्यक समाज के दर्द और पीड़ा की समझ से अलग करती हैं.यहीं कारण है कि इन्हें कई गम्भीर मसलों को समझने में दिक्कत होती है.इनका यह कदम समस्याओं को सुलझाने की जगह उलझाने में मददगार साबित होता है.

कभी-कभी इस बर्ग का राजसत्ता के साथ गहरा गठजोड़ भी सामने आता है. बावजूद इसके यह वर्ग राजनीति,समाज और अर्थनीति को गहराई तक प्रभावित कर रहा है.
यह वह वर्ग है जो आक्रोश और आतंकवाद,विरोध और विद्रोह,आन्दोलन और 

जनांदोलन,अन्याय और अराजकता,धरना और दंगा,हिंसा और अहिंसा,प्रतिरोध और प्रदर्शन में जमीनी फर्क नहीं कर पाता है.यहीं घालमेल आन्दोलन की आत्मा को मरने में सहायक की भूमिका अदा करती है.

इस तरह के लोगों की घुसपैठ सभी जगहों पर है.सरकारी मशीनरी से लागायत मीडिया तक में.यहीं कारण है कि आन्दोलन,जनसंघर्ष और राजनैतिक आन्दोलनों की रिपोर्टिंग करते समय रिपोर्टर,सत्ता-पुलिस की भाषा बोलने लगते हैं.

ऐसे मसलों पर जन की आवाज़ नगण्य हो जाती है या दबा दी जाती है या  फिर कोई न कोई हथकंडा अपनाकर राजसत्ता की पुलिस मशीनरी के जरिये जनभावना को रौंद देती है.कभी-कभी आन्दोलनों का दमन भी इसी रास्ते होता है.    

इण्डिया गेट पर आन्दोलनकारियों और मीडियाकर्मियों पर बर्बर लाठीचार्ज की रिपोर्टिंग करते वक्त कुछ चैनल्स न्यूज चलाये "आन्दोलनकारियों/प्रदर्शनकारियों के बीच दंगाई घूस आये थे,इसलिए मजबूरन भीड़ को हटाने के लिए पुलिस को लाठी का सहारा लेना पड़ा.

सर्वाधिक मीडिया कर्मियों के चोटिल होने के बावजूद किस दबाव में इस तरह का समाचार प्रसारित-प्रचारित किया गया,बताना मुश्किल है,लेकिन इस तरह की खबरें आन्दोलनकारियों की जगह,दिल्ली पुलिस और सरकार के लिए मददगार साबित हुईं.इसी समाचार की मजबूती के सहारे दिल्ली पुलिस अपने बचाव में उतर सकी और अब फंसती भी नज़र आ रही है.  

इण्डिया गेट से टीवी चैनल्स के लिए जो रिपोर्टर,रिपोर्ट कर रहे थे,उन्हें पुलिस ने पहले अपना लक्ष्य बनाया.उनके कैमरों कर वाटर कैनन से पानी फेंका.रिपोर्टरों के तरफ आंसूं गैस के गोले फेंके गये.

इसकी वजह से लाइव रिपोर्ट करने में,उन्हें खासा परेशानी भी हुई.कुछ रिपोर्टरों पर लाठी भी भांजी गयी.मीडिया में जो रिपोर्टें आयीं हैं,वह घटना के हकीकत को बयां करने की बजाय,कई तरह का संदेह पैदा करती हैं.

एसडीएम उषा चतुर्वेदी और दिल्ली पुलिस के बीच का अंतर्विरोध.दिल्ली पुलिस और गृह मंत्री की साठ-गांठ.दिल्ली की मुख्यमंत्री और दिल्ली पुलिस के बीच  मतभेद और तालमेल का आभाव.

दिवंगत कांस्टेबल सुभाष तोमर के बारे में दिल्ली,पुलिस कमिश्नर का अधिकारिक बयान और पत्रकारिता के छात्र योगेन्द्र का खुलासा.कांस्टेबल सुभाष तोमर की मेडिकल रिपोर्ट.आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी.यह सब एक बारगी दिल्ली पुलिस द्वारा लिखी गयी कहानी लगती है,जिसे आधार बनाकर मीडिया द्वारा प्रसारित किया गया.

योगेन्द्र के खुलासे और कांस्टेबल सुभाष तोमर की मेडिकल रिपोर्ट और एसडीएम उषा चतुर्वेदी द्वारा पुलिस अधिकारीयों के अनावश्यक हस्तक्षेप को लेकर दिया गया बयान.अपने में कई रहस्य समेटे हुए है.यह बहुत बारीक़ और निष्पक्ष उच्च स्तरीय जाँच की मांग करती है.   

बलात्कारियों को शीघ्र,पुख्ता और जल्दी सजा देने के लिए स्वतः स्फूर्त इस आन्दोलन को,कांस्टेबल सुभाष तोमर की मृत्यु ने न केवल झकझोरा है,बल्कि आहत भी किया है.कभी भी किसी भी आंदोलन का लक्ष्य हिंसा नहीं होता,लेकिन अकसर पुलिस का हस्तक्षेप कई बार,उसे हिंसक रूप धारण करने के लिए उकसा देता है.     

आख़िरकार एक अप्रिय घटना ने एक गंभीर न्याय की मांग के लिए उठी आवाज़ को बंद करने में पुलिस के लिए मददगार साबित हुई.आन्दोलन के शुरुआती दिनों में अच्छी भूमिका के बावजूद घटना के दिन और बाद में मीडिया की भूमिका ने आन्दोलनकारियों के प्रति नकारात्मक माहौल बनाने में मददगार साबित हुई.    

आमतौर पर देखा गया है कि वामपंथी पार्टियों द्वारा संचालित आन्दोलनों की रिपोर्टिंग करते समय अक्सर मीडिया संस्थान पार्टियों के नाम भूल जाते हैं या   समझ के अभाव में किसी दूसरी पार्टी का नाम लिख देते हैं.मसलन,आन्दोलन CPI (ML) के लोग करते हैं,खबरें CPI के नाम पर प्रकाशित होती हैं और जब CPI के लोग करते हैं तो CPM के नाम से.यह गलती पार्टियों के बारे में व्यापक समझ न होने की वजह से होती है.

यदि सही मायने में मीडिया अपने आपको समाज का चौथा खम्भा होने का दावा करता है तो आन्दोलनों की गंभीरता को समझना बहुत जरुरी है.यही समझ जनता में उसके प्रति विश्वाश का कारण भी बन सकता है.     
       

1 comment:

कवि शैलेश शुक्ला Poet Shailesh Shukla said...

उम्दा विश्लेषण डॉ साहब!