Saturday 21 April 2012








संकट में पत्रकार,फायदे में मीडिया संस्थान





 रमेश यादव 


22 अप्रैल,2012.

अब मीडिया संस्थानों को लिखने वालों की नहीं,मार्केटिंग करने वालों की जरूरत है.अखबार विज्ञापन से चल रहे हैं,लिखने से नहीं.अखबारों में जो सारा चमक-दमक दिख रहा है,वह तकनीक का कमाल है,कलम का नहीं.इसलिए कलम चलाने वालों के सामने संकट है,नियमित नौकरी और भविष्य की सुरक्षा को लेकर.अब तो इनके सामने परिवार को चलाने तक का संकट है.
        
पत्रकारिता संस्थान निरंतर फायदे में जा रहे हैं और उसे चलाने वाले तमाम तरह के संकट से जूझ रहे हैं.यह मंजर पूरे मुल्क का है,भले इसके रूप अलग-अलग हों.लेकिन इतना तो जगजाहिर है कि पत्रकारिता संस्थान पत्रकारों का खून चूसकर फलफूल रहे हैं.संस्थान के मालिक पूंजी और अखबार का निरंतर विस्तार कर रहे हैं.

इनका सरकारों के साथ साठगाठ है.दोनों एक दूसरे के महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थों की पूर्ति कर रहे हैं.अखबारों के संवाद सूत्र,संवाददाता और सम्पादकीय विभाग के लोग सर्वाधिक शोषण के शिकार हैं.बेशक इसके चपेट में सभी न हों,लेकिन बहुसंख्यक बिरादरी की यही कथा है.अंदरखाने में सभी को पता है कि बड़ा पैकेज किसे मिल रहा है और किसका भविष्य दिन-रात मेहनत करने के बावजूद असुरक्षित है.जाहिर है,सभी पत्रकार संपादक नहीं बन सकते और न ही घर-परिवार छोड़कर राजधानियों में अवसर तलाशा सकते हैं.

सभी सत्ता और मालिक के बिचौलिए नहीं हो सकते और मालिक के आगे-पीछे दुम नहीं हिला सकते.सबके चरित्र और स्वाभिमान के अलग-अलग रसायन होते हैं.यही वजह है कि दूसरों की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों की आज़ादी खुद खतरे में है.दूसरों की समस्याओं को उठाने वालों की समस्याओं पर कोई विचार करने वाला नहीं है.दूसरों की आवाज उठाने वालों की आवाज़ मीडिया संस्थानों में दफ़न है.

पत्रकारों के हितों कि रक्षा के लिए जो संगठन अस्तित्व में हैं,वे सिवा खानापूर्ति के कुछ भी नहीं कर रहे हैं,बल्कि यहाँ कहना अधिक सही होगा कि ये संगठन बनाकर बिचौलिए का काम कर रहे हैं.वर्ना ये सही तरीके से कम कर रहे होते तो इतनी समस्याए नहीं होती,जो आज दिख रही हैं.      
पत्रकारिता में भी लोग समाज से ही आते हैं.इसलिए जो बुराइयां वहीं थीं,वह यहाँ भी आ गई हैं.यहाँ भी हर तरह के जीव-जंतु मौजूद हैं.जो रीढ़हिन और अवसरवादी हैं,वे हर जगह,हर समय निजी फायदे में लगे रहते हैं.जो समझौता नहीं कर पाते,वे हाशिए पर रहते हैं.बेदखल किये जाते हैं.

दिल्ली और राज्य की राजधानियों के पत्रकार जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं,इसके उलट कस्बों और जिलों के पत्रकारों संघर्ष कर रहे हैं.पत्रकारिता में भी ठेके पर काम होने लगा है.नियमित नौकरी के दिन लद गए हैं.सर्वाधिक संस्थानों में नियुक्तियां अनुबंध पर हो रही है.इससे एक नए किस्म के शोषण का जन्म हुआ.

इस प्रकार के लोग निरंतर अपनी नौकरी सुरक्षित रखने में ही लगे रहते हैं.वैसे इनकी ड्यूटी आठ घंटे की होती है,लेकिन बारह घंटे से अधिक काम लिया जाता है.दिन-रात मेहनत के बावजूद मौजूदा जरुरत के हिसाब से इन्हें वेतन नहीं मिल रहा है.इनके ऊपर छटनी और असुरक्षा की तलवार हमेशा लटकती रहती है.किसी संस्थान में दशकों काम करने के बावजूद,इनका भविष्य सुरक्षित नहीं होता.संस्थान जब चाहे,बाहर का रास्ता दिखा सकता है.लोग संवैधानिक चुनौती भी नहीं देते.पचड़े में पड़ने से बचते हैं.

इसलिए लोग लड़ना नहीं चाहते.हमेशा नौकरी खोने का भय सताता रहता है.    
संस्थानों को इनसे जीतनी अधिक अपेक्षा रहती है,उसकी तुलना में वेतन और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी नहीं मिलती है.इसकी वजह से दिमागी तौर पर ये दिन रात तनाव में रहते हैं.कभी कभार यदि भत्ते भी बढ़ते हैं तो बेसिक नहीं बढ़ते.क्योंकि इसकी वजह से फंड वगैरह कटेंगे,जिसका बोझ सीधे संस्थान पर जायेगा.इन्हें जितना आफर किया जाता है,उतना दिया भी नहीं जाता.
पत्रकारों के श्रम कानून और वेतनमान के मामले को लेकर कई कमीशन बने.लेकिन उनकी सिफारिशें व्यवहार में लागू नहीं की गई.

गत वर्ष बहुतेर संस्थान मंदी के नाम पर पत्रकारों की छटनी कर दिए.लोग सड़क पर आ गये.उम्र दराज (५० ) लोग इसके अधिक शिकार हुए.आज कल मीडिया संस्थानों में २० से ३५ साल के लोगों का अधिक प्राथमिकता दी जाती है.इस खास उम्र के ऊर्जा के शोषण के बाद यही संस्थान,इन्हें अनुपयोगी मानकर बाहर का रास्ता दिखा देते हैं.

कभी-कभी आर्थिक संकट या अन्य कोई इलज़ाम लगाकर  कई लोगों को निकाल दिया जाता है और बाद में उससे भी बड़े वेतन पर दूसरे लोगों को रख लिया जाता है.हालाँकि यह आतंरिक राजनीति का हिस्सा माना जाता है.लेकिन इस तरह की मनमानी पत्रकारों के भविष्य के लिए सबसे खतरनाक साबित हो रही है.      


‘पेपर और पेन लेस’ जर्नलिज्म
मौजूदा पत्रकारिता में योग्यता का कोई पैमाना नहीं है.आज कल कई तरह की योग्यताएं चर्चा का विषय हैं. मसलन,चयन करने वाले,खूबसूरत चेहरे को अधिक प्राथमिकता दे रहे हैं.इसकी असली वजहें सभी जानते हैं.इसके आलावा जाति,क्षेत्र,भाई-भतीजा और अन्य स्वार्थों के संपर्क निर्णायक साबित हो रहे हैं.चयन प्रक्रिया बहुत पारदर्शी नहीं है.सभी वर्गों की समान भागीदारी भी नहीं है.  
बावजूद इसके,पत्रकारिता के ग्लैमर से प्रभावित बहिसंख्यक युवक मोटी रकम खर्चा करके 

पत्रकारिता की डिग्री हासिल कर रहे हैं.लेकिन उन्हें उनके प्रतीभा और ज्ञान पर नौकरी नहीं मिल रही है.क्योंकि संस्थानों को बुद्धि,विवेक,तर्कवादी और ज्ञानी लोगों की जरुरत नहीं है.उन्हें ऐसे लोगों की जरुरत है,जो बिना कुछ सोचे जो,कहा जाये वह कर सकें.मुख्य काम तो मार्केटिंग और सर्कुलेशन वाले कर रहे हैं.

आज मीडिया मालिकान और पत्रकारों का रिश्ता धोबी और गधे सरीखा है.जैसे धोबी,गधे के पीठ पर उसकी क्षमता से अधिक वजनी ‘लादी’ लादता है.सिवा इसे ढोने के गधे के पास कोई विकल्प नहीं होता.यदि गधे ने धोबी  के उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा तो धोबी उसकी जम कर पिटाई करता है और दाना-पानी भी बंद कर देता है.ठीक यही स्थित पत्रकारिता संस्थानों की है.सिर्फ स्वरूप में अंतर है.

आजकल पत्रकारों से गधे की तरह ही काम लिया जा रहा है.मसलन, उन्हें फिल्ड में जाकर समाचार संकलन करना है.आफिस में आकार कंप्यूटर पर टाईप करना है.खुद प्रूफ रीडिंग और संपादन करना है.हेडिंग (शीर्षक) और सब हेडिंग भी लगनी है.पेज भी तैयार करना है.यदि भूल वस इसमें कोई चूक हो गई या ऊपर वालों की नज़र में कमियां-खामियां दिखी तो नौकरी से हाथ धोने के लिए 

तैयार भी रहना है.इसे कहते हैं तलवार के धार पर कम करना.
पहले उक्त कार्यों को करने के लिए अलग-अलग जानकार  लोग होते थे.संचार क्रांति ने बहुतों के प्रतीभा की बलि ले ली.कंप्यूटर के आने से उन्हें,नौकरी से धकिया कर निकाल दिया गया.
जब ‘पेपर और पेन लेस’ पत्रकारिता का दौर शुरू हुआ.पत्रकारों को बहु-आयामी (मल्टिडाइमेन्शनल) होने के लिए शर्त रखे गए.सारा काम उसी के कन्धों पर लाद दिए गए.लोगों के पास बहुत अवसर नहीं थे.हर आदमी अपना परिवार और शहर छोड़कर लखनऊ-दिल्ली नहीं जा सकता.इस मजबूरी का फायदा संस्थानों ने खूब उठाया.

यदि किसी एक ने इसका विरोध किया तो उसे संस्थान से निकाल दिया गया,जिनके लिए वह लड़ रहा था,वे ही लोग हजार-दो हजार में नौकरी करने के लिए संस्थान के बहार क़तर लगाये खड़े रहते हैं.मालिक को भी लगता है की जब कोई दो हजार में काम करने के लिए तैयार है तो किसी को २० हजार में क्यों रखा जाये.जितना वेतन एक को देंगे,उतने में दस लोगों को रख लेंगे.       
संवाददाताओं को वेतन न देना पड़े,इसलिए मीडिया संस्थान ‘हाकर’ से लगायत ‘पान के दुकानदार’ तक को संवाद सूत्र बन रहे हैं.अखबार का सर्कुलेशन का भार इन्हीं के कन्धों पर होता है.इसलिए संस्थान इन्हें सिर चढ़ाये रहते हैं.

इनके आमदनी का स्रोत बीके हुए अखबार का कमीशन,वेतन के नाम पर कुछ ‘टोकन मनी’ और संस्थान का आईकार्ड (परिचय पत्र).यह एक तरह का लाइसेंस है.इसे दिखाकर या इसके ताकत से अपने-अपने इलाके में चरिये-खाइए.पत्रकारिता के दुनिया में ऐसे लोगों को ‘संवाद सूत्र’ के नाम से भी जाना जाता है.यह सभी संस्थानों का सच नहीं है,लेकिन ग्रामीण पत्रकारिता में यहीं प्रयोग हो रहा है.इनकी भूमिका और चरित्र के बारे में फिर कभी बात होगी.         

मौजूदा दौर में बड़े प्रकाशन समूह एक से अनेक भाषाओँ और क्षेत्रों में विस्तार ले रहे हैं.फायदे में भी हैं.वहीँ आंचलिक समाचार पत्र जिन्दा रहने के लिए जूझ रह हैं.आजकल तो बहुत से लोग हैं जो गलत तरीके से कमाए पैसे को मीडिया में लगा रहे हैं.    
सरकार भी यथास्थिति बनाये रखना चाहती है.सोचती है की अधिक अखबार आयेंगे तो उन्हें साधने में दिक्कत होगी,कम रहेंगे तो साधना आसान रहेगा.  
पत्रकारिता से जुड़े लोग चाहते हैं दो रुपये कम वेतन मिले,लेकिन भविष्य सुरक्षित हो.यह तभी होगा,जब नौकरी बरकार होगी.



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