Friday 20 April 2012

भारतीय शिक्षा व्यवस्था का कटोरावाद




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अतीत में वर्णभेद से ग्रसित थे,वर्तमान में अर्थ-भेद से त्रस्त हैं

रमेश यादव

12 अप्रैल,2012,नई दिल्ली.
वैसे तो भारतीय शिक्षा व्यवस्था को कई नामों से जाना जाता रहा है.यह कभी ‘गुरुकुल’ से सींचित हुआ.कभी ‘लार्ड मैकाले’ से.
कभी इस पर वर्ण-भेद की प्रेत छाया,छाई रही,वर्तमान में यह अर्थ-भेद से ग्रस्त है.
अब इसे ‘भारतीय शिक्षा का कटोरावाद’ के नाम से भी जानना चाहिए.
हमारे मुल्क में शिक्षा समाज के सभी वर्गों के लिए समान अवसर और गुणवत्ता माँ मानक कभी नहीं बन सका.
एक समय ऐसा भी आया जब सरकार ने शिक्षा को निजी हाथों में सौंप दिया.यहीं से शिक्षा का दरवाजा बाज़ार के लिए खुला.
फिर क्या था.देखते-देखते यहाँ धन्ना सेठों के बेटे-बेटियों का संख्या और वर्चस्व बढ़ने लगा.
बाज़ार और फायदे का नब्ज टटोलने वाले कुकुरमुत्ते की तरह कन्वेंट्स स्कूल खोलने लगे.
पैसे वालों पर अंग्रेजी शिक्षा का क्रेज इस कदर हावी होने लगा कि बहुसंख्य लोग सरकारी स्कूलों से बच्चों का नाम कटा कर प्राइवेट स्कूलों में भेजने लगे.
आगे चलकर स्कूलों की फ़ीस इतनी बढ़ी की गरीब-गुरबों के बेटे-बेटियों के लिए स्कूली शिक्षा भी दिवास्वप्न हो लगा.
जो कभी वर्ण भेद की वजह से शिक्षा नहीं ले सके,वे अब अर्थ भेद यानी आर्थिक संकट की वजह से इससे वंचित होने लगे हैं.
सरकार,निजी शिक्षण संस्थानों के फ़ीस और गुणवत्ता को  नियंत्रित करने में असफल रही है.
देखते-देखते सरकारी स्कूल उजड़ने लगे.सरकार को लोक कल्याणकारी राज्य होने का अहसास हुआ.  
६-१४ साल के बालक-बालिकाओं को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देने के लिए ‘मिड डे मिल’ का चारा फेंका.
यह चारा ऐसा था,जिसमें पूरा ग्रामीण भारत फंसता हुआ नजर आया,उस मछली की तरह जिसे फंसाने के लिए मछुआरा जाल,महाजाल और कटिया फेंका करता है.
‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009’,जिसे १ अप्रैल,२०१० में लागू किया गया.
अब क्या था अगड़ा हो या पिछड़ा,दलित हो या आदिवासी या फिर अल्पसंख्यक यानी सभी के लिए एक तरह की व्यवस्था.
यह ‘आमंत्रित समाजवाद’ था.स्कूल आने और दोपहर में भोजन खाने की.साथ ही मुफ्त में पुस्तक,ड्रेस और वजीफा भी.
इसे नंगे-भूखों को स्कूल तक लाने और आंकड़ा दिखाकर विश्व बैंक से मोटी रकम वसूलने की कवायद के तौर भी देखा जाने लगा है.           
एक समय था जब माता-पिता स्कूल के लिए तैयार होते वक़्त बच्चे से पूछते थे कि ‘स्लेट’-तख्ती,पटरी,दुधिया-दवात और सत्तर (धागा) झोले में रखे की नहीं.
समय ने करवट बदला.इसकी जगह पेन,पेन्सिल,रबर,कटर और पुस्तक आदि रखने की याद दिलाने की जगह गार्जियन‘ ने झोला में ग्लास,कटोरा और थाली’ रखने की हिदायत देना नहीं भूलते.
आज से इसे ‘भारतीय शिक्षा का कटोरावाद’ के नए नाम से भी  जानिए.यह मेरा दिया हुआ नाम है.इससे सहमति जरुरी नहीं है.
दरअसल नीति निर्धारकों का मानना था कि गार्जियन बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भले,न भेजें,लेकिन भोजन के लिए जरुर भेजेंगे.
यहीं हुआ बच्चे कटोरा लेकर पहुँचाने लगे.
अफसोस की वर्तमान में बुनियादी शिक्षा देने के लिए बच्चों को प्रकृति के साथ जोड़ने की जगह कटोरा‘ से जोड़ दिया गया. 
अब जब दुनिया ग्लोबल बन रही है.
वैश्विक संवाद-संचार और रोजगार की भाषा ग्लोबलिश‘ हो रही है.
ऐसे समय में ये कटोरावादी‘ पीढ़ी,मौजूदा प्रतिस्पर्धा से कैसे मुठभेड़ करेगी.
हम 15 अगस्त 1947 को आजाद हुए और 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र बन गए.
इतने दशक बाद भी भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक समानता का संकल्प पूरा नहीं हो सका है.
यह दुर्दशा केवल प्राथमिक शिक्षा में नहीं है,उच्च शिक्षा में भी व्यापक स्तर पर देखा जा सकते हैं.
कमोबेश हर सरकार,शिक्षा में परिवर्तन के नाम पर अपना रंग चढ़ाने की कोशिश करती रही है.लेकिन कोई भी रंग सम्पूर्ण समाज का नहीं हो सका.   
भारतीय राजनीति और लोकतंत्र में समाजवाद या साम्यवाद भले न आया हो,लेकिन स्कूली शिक्षा में ‘कटोरावादी समाजवाद’ जरुर दिखने लगा.  

इसके पीछे सरकार का मकसद सबको सामान शिक्षा और अवसर देना नहीं,बल्कि खानापूर्ति करना रहा है.
‘सर्व शिक्षा अभियान’ के बावजूद करीब ८१ लाख बच्चे स्कूल से दूर हैं और ५ लाख शिक्षकों कि जरुरत है.
इसपर सरकार गंभीर नहीं है.लेकिन ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के प्रचार के लिए ‘स्कूल चलें हम’ विज्ञापन पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है.   

सरकारी नीतियां बराबरी का समाज बनाने में नाकाम साबित हो रही हैं.


सुप्रीम कोर्ट का फैसला  
१२ अप्रैल,२०१२. सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने ‘शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009’ की संवैधानिक वैधता को बरकार रखा है और फैसला दिया है कि सरकारी और निजी स्कूलों में गरीब छात्रों के लिए 25 फीसदी सीटें बिना फीस के आरक्षित करनी होगी.
यह कानून पूरे देश सभी सरकारी और गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में सामान रूप से लागू होगा.
सरकारी सहायता प्राप्त न करने वाले अल्संख्यक संस्थानों पर यह आरक्षण लागू नहीं होगा.
  
शिक्षा का अधिकार
वर्ष 2010 में देश ने एक ऐतिहासिक उपलब्‍धि प्राप्‍त की जब 1 अप्रैल, 2010 को अनुच्‍छेद 21क और नि:शुल्‍क बाल शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम, 2009 लागू किए गए। अनुच्‍छेद 21क और आरटीई अधिनियम के लागू होने से प्रारंभिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण के संघर्ष में हमारे देश ने एक महत्‍वपूर्ण कदम आगे बढ़ाया। आरटीई अधिनियम ने इस विश्‍वास को मजबूत किया है कि समानता, सामाजिक न्‍याय और प्रजांतत्र के मूल्‍यों और न्‍यायपूर्ण एवं मानवोचित समाज का सृजन केवल सभी के लिए समावेशी प्रारंभिक शिक्षा का प्रावधान करके ही किया जा सकता है।

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