Sunday 7 October 2012

एक गैर कवि की कवितई


रमेश यादव 




छुटपन के दिन 

तुम्हें याद है 
वह दिन छुटपन की
जब हम चाँदनी रातों में 
बनियों के खेतों से चोथ लाते थे धनिया 
पीसते थे चटनी   
खाते थे 
मांड-भात के साथ 
पकड़ लिए गए जब कभी 
चोथते हुए,धनिया/लहसुन,तरकारी 
और तोड़ ते हुए आम-अमरूद   
कान पकड़ कर धमकाया था हमें,उस बनिए ने 
क्या था हमारे पास भात के सिवा ?
उनके पास तो सब कुछ था 
खेत,खलिहान,घर,बंगला,बागीचे,बैंक,बैलेंस
दुनिया की सारी सुख सुविधाओं 
पर उन्हीं का तो कब्ज़ा था, है,रहेगा...
07/10/2012

अपना भविष्य 

तुम 
तय नहीं कर सकते हमारा भविष्य          
तिकड़म/गणित और जुगाड़ से
देकर कृपा फल का लालच 
चूसोगे मुझे जीवन भर 
अहसान का बोझ बनकर.
मैं खुद सवारुंगा 
अपना भविष्य 
संघर्षों का पाठ पढ़कर
काँटों भरे पथ पर चलकर.
मुझे नहीं चाहिए  
तुम्हारे पैरवी के बुलबुले 
चाहूँगा सदैव वह प्रगति  
मिटा न सके कोई 
हमारे समय के शिलापट्ट की तारीख.
 
07/10/2012

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