Monday 28 January 2013

प्रकाशक चील,लेखक बगुला और पाठक मछली




भाग एक 

रमेश यादव
आधुनकि सूचना तकनीक आदमी को दुनिया से और दुनिया को आदमी से जिस गति से जोड़ा है.उसी रफ़्तार से उसे समाज से अलग-थलग भी किया है. पहले की अपेक्षा संवाद सुलभ हुआ है.
वैश्विक गतिशील बढ़ी है.अवसर भी बढ़ें हैं.बावजूद इसके व्यक्ति जीवन के स्तर पर एकाकी,तकनीकी और व्यक्तिवाद का शिकार होता जा रहा है.इसका प्रभाव पढ़ाई-लिखाई पर भी पड़ा है.  

हम भी इसके शिकार हुए हैं.जब हममें पढ़ने की ललक थी.तब हमारे पास किताबें नहीं थीं और खरीदने के लिए पैसे भी.आज किताबें हैं.खरीदने की क्षमता (डालर/पाउंड को छोड़) भी है.
घर में लाइब्रेरी भी है.उनमें किताबें भी हैं.लेकिन पढ़ने की ललक निरंतर मरती जा रही है. इसके पीछे कोई एक नहीं कारण नहीं है,अनेकों कारण हैं.पहले लोगों के पास वक्त ही वक्त था.अब उसी वक्त में टीवी / न्यूज चैनल्स
इंटरनेट / फेसबुक / ब्लॉग /ट्विटर / न्यूज पोर्टल आदि ने सेंधमारी की है.तब हमारे जीवन में ये सभी साधन नहीं थे.
आज जीवन की भाग-दौड़,बोझिल प्रोफेशन कार्यशैली सामाजिक,आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक समस्याएं दिमाग को बंजर बनाने में हम भूमिका अदा की हैं.लेखक और लेखन के स्तर पर भी संकट आया है.
अच्छी किताबों का आभाव भी खल रहा है.अब कोई ऐसी किताब नहीं मिलती,जिसे भीख मांग कर पढ़ने या खरीदने के लिए मचला जाए.
 किताबें वहीँ बाज़ार में आ रही हैं.जिन लेखकों की पहुँच प्रकाशक तक है याजिनके तक,प्रकाशक खुद पहुँच रहे हैं.लेखक और प्रकाशक के बीच एक खास किस्म का गठजोड़ चल रहा है.
यह कुबवादी और मठवादी गिरोह है,जो अपनों और अपने खेमे कोहर तरह से लांच करने के तिकड़म / षड्यंत्र में शामिल / सक्रिय है.    
आज बाज़ार में उन किताबों की बाढ़ सी आयी हुई है,जो पाठक के दिमाग मेंभूंसा-गोबर भर रही हैं.यहीं किताबें कमीशन खोरी और पैरवी के सहारे
सरकारी-गैर सरकारी पुस्तकालयों में धड़ल्ले से मंगाई जा रही हैं या भरी पड़ी हैं.कीमतें,मत पूछिए...कुछ खास लेखक,कुछ खास प्रकाशकों के लिए दुधारू गाय बने हुए हैं.
ये ग्वाला की तरह उनके थन के नीचे बाल्टी लगाये एक बूंद अमृत ज्ञान’ टपकने की टकटकी लगाये रहते हैं.
 जो किताबें वास्तव में पठनीय हैं या जो असरदार लेखक हैं,उनकी किताबें खरीदने के लिए भटकना पड़ता है.
 भारत में कोई भी पुस्तक आमतौर पर बेस्ट सेलरनहीं होती है.बेस्ट सेलरघोषित करने में प्रकाशक को घाटा है.कारण उसे लेखक को रायल्टी (रॉइअल्टी) देनी पड़ेगी.   
बावजूद इसके कई ऐसे छोटे-छोटे प्रकाशक हैं जो सस्ते दर पर साहित्य उपलब्ध करा रहे हैं.कुछ प्रकाशक लोकप्रिय विदेशी साहित्य का बेहतरीन हिन्दी अनुवाद भी कर रहे हैं.         

लेखक,पुस्तक,प्रकाशक और पाठक इन सब में दर्द,दया और दरबार की संस्कृति भी विकसित हुई है.लिखने,छापने और पढ़ने की संस्कृति में भी चोरी और सेंधमारी की संस्कृति पनप रही है.जब तकनीकी रूप से पिछड़े चोर सेंध विधि की चोरी के माहिर थे.
 रात में सेंध लगाकर चोरी कर ले जातेलोगों को सुबह पता चलता.तब चिलपों-चिलपों शुरू होतापता नहीं उस ज़माने के लोग कितना सुतक्कड़ थे याफिर चोरशातिर थे.आज तो प्रकाशक दिन में चोरी करता है और जगे हुए लेखक को पता तक नहीं चलता.

आज बौद्धिक चोरी,मुनाफे और शोषण की संस्कृति के साथ ही पढ़ने के अलहदीपन/आलसीपन की संस्कृति पर भी चर्चा की जरुरत है.

पहले किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे,तब पुस्तकें मांग कर/झटक कर पढ़ते थे.चोखा-भात खाकर पैसा बचाते थे.फिर उससे मन पसंद उपन्यास/कहानी/कविता/समकालीन विषयों पर लिखी पुस्तकों को खरीदते थे. इस अलहदीपन की संस्कृति का हम भी हिस्सा हैं..  

एक समय था जब पढ़ने बैठते थे तो भूख पेट में आन्दोलन करके शांत हो जाता था.खाना तभी खाते थे.जब पुस्तक की भूख ख़त्म होती या कम होती.कई बार किताबों के बारे में पता चलता.लंका यूनिवर्सल या बीएचयू विश्वनाथ मंदिर के पास प्रोग्रेसिव बुक सेंटर’ पर घूमते हुए पहुँच जाते.एक किताब देखते वे,लोग चार और किताबें पकड़ा देते.
बोलते ये पढ़िए ! 
अब तक का सबसे बेहतरीन उपन्यास है. मैं कहता ठीक है,इसे अगली बार ले जाऊँगा.कार्ल मार्क्स, सिमोन, स्टीफन स्वाइंग, इज़डोरा डंकन....की आत्मकथाएं.कई बार सिर्फ देखकर रख देते,कारण पैसे नहीं होते.पसंदीदा किताबें अधिक होतीं और साधन कम.
हमें याद है.2001से लगायत 2004 के रिसर्च के वक्त थीसिस पर काम करते,केंद्रीय लाइब्रेरी में घूस जाते,रिसर्च की पुस्तक तक पहुंचते,उससे पहले कोई न कोई उपन्यास मिल जाता.उठा लाते.

झा जी चुपके से आते,पीछे से पूछते क्या पढ़ रहे हो गुरु', किताब देखकर छीन ले जाते बोलते  'पहले थीसिस लिखो,फिर उपन्यास पढ़ना.विद्वान का .....पी-एच.डी. अवार्ड होने के बाद बनना ' 
 आज पैसा है.घर में वे सभी किताबें हैं,जिन्हें पढ़ने के लिए बेकरार था या अकेले की साथी थीं.अब पुस्तकों के लिए समय नहीं मिलता.मिलता भी है तो पढ़ने में दिल नहीं लगता.मतलबयह की तकनीक/संसाधनों की उपलब्धता से बेशक जीवन सुलभ बना है,लेकिन पढने की संस्कृति का नाश का भी हुआ है...

यह कटिंग-पेस्टिंग का ज़माना है. आधुनिक तकनीक ने पढ़ने-लिखने, सुनने, गुनने-धुनने के वक्त को अपना शिकार बनाया है.
आज समय और मन को शिकार होने से बचाने की चुनौती है.यह चुनौती ही पुस्तक और पढ़ने की संस्कृति को बचा पायेगी.

नोट:  26 जनवरी,२०१३ को पुस्तक,लेखक,प्रकाशक,पाठक औरघरेलू पुस्तकालय की संस्कृति पर परिचर्चा के लिए तैयार लेख का पहला भाग यहाँ प्रस्तुत है.          


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