Friday 15 February 2013

भोजपुरी बनी ‘भोग-पुरी’ !


रमेश यादव.12 फरवरी,2013.नई दिल्ली.  
 सत्ता प्रतिष्ठान और उसके इर्द-गिर्द मंडराने वालों के लिए भोजपुरी इन दिनों भोग-पुरी‘ साबित हो रही है,बावजूद इसके भोजपुरी को ओढ़ने-बिछाने वाले वगैर दिखावा किये इसे अपने रगों में जी रहे हैं.
किसी भी भाषा को आम अवाम ज़िंदा रखती है और उसका निरंतर सृजन भी करती है,सरकारें नहीं.सरकारें तो सिर्फ बोली/भाषा की औजार के तौर पर इस्तेमाल करती हैं.वहां तक अपनी घुसपैठ बनाने के लिए.
 बोली-भाषा को सर्वाधिक खतरा आम आदमी से नहीं बल्कि,उन्हें ज़िंदा रखने और सृजन के लिए बनी आकादामियों और उनके संरक्षकों से है.
 आमतौर से देखा गया है जो लोग सत्ता प्रतिष्ठान के इर्द-गिर्द गणेश परिक्रमा करते हैं,वहीँ आकादामियों के खेवनहार बन जाते हैं.
 कई बार तो सत्ता के साथ सरोकार रखने वाले ही बोलियों-भाषाओँ के भी सरोकारी बन जाते हैं.अंग्रेजी बोलने वाले हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और हिन्दी बोलने वाले मैथिल और भोजपुरी की.अन्य बोलियों-भाषाओँ के साथ भी यही हाल होगा.
 यानी भोजपुरी के अंडे को अंग्रेजी को पालने की जिम्मेवारी दी गई है.यह ठीक वैसे ही है जैसे कोयल के अंडे को कौवा पाल रहा हो…
ऐसा नहीं है कि भोजपुरी बोलने वालों का अकाल है.यह संकट जिम्मेवारी के स्तर पर है.    
 आमतौर पर देखा गया है कि बोलियों-भाषाओँ की जिंदगी सेमिनारों/ कार्यशालाओं/ संगोष्ठियों/ परिचर्चाओं और खानापूर्तियों पर निर्भर होती है.बजट सत्र के पूर्व अकादमियों में अधिक गहमागहमी दिखती है.यह भी रस्म अदायगी तक सीमित है.
अकादमियों को अपने इस चरित्र से बाहर निकलने की जरुरत है.यह प्रयास कोई सरकार नहीं करेगी.जब तक इस तरह के संस्थाओं की कमान सरकारों के पास रहेगा तब तक पुरस्कारों,पदों और लाभ का बन्दर बाँट होता रहेगा.
इसको स्वतंत्र-संस्था के रूप में संचालित करने की जरुरत है.जब तक सरकारों की साया अकादमियों पर मंडराती रहेगी.तब तक सरकार के सेवक इसका भोग करते रहेंगे.
 भाषाओँ के भोगवाद के ख़िलाफ़ अभियान चलाने और जनता के सरोकार से इसे जोड़ने की जरुरत है.

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