Wednesday 2 January 2013

बाज़ार शोक मनाता नहीं,शोक को बेचता है





बाज़ार शोक मनाता नहीं,शोक को बेचता है 










बाज़ार सभ्यता,संस्कृति,संस्कार,सिद्धांत,नैतिकता,मूल्य और सरोकार से नहीं चला करता है और न ही इसे वह गढ़ता है.

सामाजिक जीवन में भले किसी अप्रिय घटना से शोक हो,लेकिन बाज़ार में कभी कोई शोक नहीं होता.बाजार कोई निर्जीव वस्तु नहीं है.

बाज़ार का जीवन,उपभोक्ता हैं.बाज़ार को चलाने वाला भी आदमी है और खरीदर भी आदमी ही है .

बाज़ार मूल्य और संस्कार से नहीं चला करता.बाज़ार को मुनाफा चाहिए.जाहिर है,मुनाफा नैतिक मूल्य से नहीं आता.

इसके लिए चोरी,कालाबाजारी,लूट खसोट,गलाकाट प्रतिस्पर्धा और मुनाफाखोरी की संस्कृति प्रबल होती है..ये सब भी आदमी ही करता है...फिर आदमी क्या है ...?

फिर यह सब करते हुए आदामी का सभ्यता,संस्कृति,संस्कार,सिद्धांत,नैतिकता,मूल्य और सरोकार कहाँ गायब हो जाता है...? इसे गायब करने वाला कौन है...?

आखिरकार बाज़ार में खड़ा बिक्रेता और उपभोक्ता दोनों ही आदमी हैं.दोनों एक ही समाज से आते हैं.फिर संकट कहाँ है.समाज या आदमी के स्तर पर है...?

नये वर्ष को लेकर हमें कोई उत्साह नहों होता.इस बार का माहौल इतना गमगीन था कि पहले से ही मन व्यथित था.एक जनवरी को बाज़ार को देखने का मन हुआ.सो साकेत चला गया...वहां एक साथ कई मॉल हैं.एक दो में जाना हुआ.

मॉल रंग बिरंगे रोशनी से जगमग था.उसकी चमकदमक देखने लायक थी.आलम यह कि आप दूसरी तरफ देखकर कदम नहीं रख सकते थे.यदि रखने का जोखिम भी उठाये तो,आपके पहले किसी और के कदम मौजूद मिलते...(चित्र देखें- 13 94,95,96,97) तमाम चकाचौंध के बावजूद मॉल में मन नहीं लगा,बाहर निकल आये.

खोखा मार्केट (साकेत में) से पहले सनातन धर्म मंदिर (संभवतः,आस्था न होने की वजह से बहुत से मामले में अनभिज्ञ हूँ.) के पास लोग प्रसाद लेने के लिए कतार में खड़े थे. (चित्र देखें- 1398) लगभग सभी तरह के लोग.

मेहरौली-बदरपुर रोड पास करते समय देखा.एक बुजुर्ग महिला दुकान के पास,सड़क के किनारे अपना आशियाना बनायीं हैं.उनके पास सर्दी से बचने के लिए जो ओढ़ना-बिछौना था,सिर्फ कल की सर्दी ही नहीं,जिसका न्यूनतम तापमान 4. कुछ था,बल्कि पूरी सर्दी के लिए अपर्याप्त था.(चित्र देखें-1400).

उनके दस कदम की दूरी पर एक रजाई बनाने वाले की दुकान थी.उस वक्त भी रजाईयां बन रहीं थीं...समय कोई साढ़े का रहा होगा..

और अंत में देखिये इस महीने की पत्रिकाएं खरीदने गये,उसकी दुकान पर एक पत्रिका थी.उसपर क्या लिखा था खुद ही पढ़ लीजिए..इस चित्र के जरिये-चित्र -1399

अभी फोटो अपनी मोबाइल से...
 

3 comments:

Rohitas Ghorela said...

संवेदनाशून्य शहर है ये यहाँ संस्कृति,संस्कार सब बिक गये हैं। "न बाप बड़ा न भैया,सबसे बड़ा रुपया" वाली कहावत को साकार करता है ये बाज़ार। मार्मिक और लोगों की ना समझी वाले चित्र आपकी पोस्ट को साकार बनाते है।

यहाँ पर आपका इंतजार रहेगाशहरे-हवस

रमेश यादव said...

धन्यवाद !
जरुर...

रमेश यादव said...

धन्यवाद !
जरुर...